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Saturday, December 2, 2006

""" हमारे पुराण और महाकाव्य """

""" हमारे पुराण और महाकाव्य हमारी मात्रिभुमि की विशाल मुर्ति दर्शाते है ! उत्तर मे देवतात्मा हिमालय नामका पर्वतराज विराज्मान है ! उसके पष्चिम मे आर्यान ( ईरान ) और पुर्व मे श्रुन्गभुर ( सिन्गापुर ) के तरफ़ दो समुद्रो मे अपनी दोनो भुजा स्नान कराते है ! दक्षिण महासागर मे उसके पवित्र चरणो पर चढी हुइ कमलपुष्प की पन्खुडी के समान लन्का ( श्रीलन्का ) आसीन है ! मात्रिभुमी का यह चित्र हजारो वर्षो से अविरत हमारे जनमानस मे देदिप्यमान है ! हमारे लिये इस भुमि से पवित्रतर कोइ हो ही नहि सकता ! इस भुमि की धुल का एकएक कण , जड-चेतन ,काष्ठ-पाषाण , व्रुक्ष और नदी हमारे लिये पवित्र है ! ये सभी स्थावर-जन्गम तीर्थ के समान अपने इश्वरीय अन्श को उजागर करते है !
""" इस भुमि के बालको मे यह गाढ भक्ति जाग्रुत रखने के लिए अनगिनत विधीविधान और लोकचाह की स्थापना हुइ ! हमारे महत्व पुर्ण धार्मिक सन्सकार भुमिपुजन से ही शुरु होते है ! " भारत वर्षे भरत खण्डे जम्बुद्विपे.........." ! प्रभात को नीन्द मे से उठकर धरती पर पैर रखने से पहले क्षमा-याचन होता है !
! समुद्र वसने देवि पर्वतस्तन मण्डले !
!! विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यम पाद्स्पर्श क्षमस्व मे !!
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